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Saturday, February 18, 2012

] एक शिष्य ने गुरु से पूछा, 'गुरुवर! संसार में किस...



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From: Rajesh Gambhir


एक शिष्य ने गुरु से पूछा, 'गुरुवर! संसार में...
Rajesh Gambhir 14 February 18:47
एक शिष्य ने गुरु से पूछा, 'गुरुवर! संसार में किस ढंग से रहना चाहिए?' गुरु बहुत ही ज्ञानी थे। पहले तो प्रश्न सुनकर मुस्कराए फिर बोले, 'अच्छा प्रश्न किया है, एक दो दिन में व्यवहार द्वारा ही उत्तर दूंगा।' अगले दिन एक श्रद्धालु मिठाइयां लेकर आए और उन्होंने स्नेहपूर्वक गुरु को मिठाइयां भेंट कीं। संत ने उन्हें ले लिया और पीठ फेरकर सब खा गए। न वहां बैठे लोगों में से किसी को दिया, न भेंट करने वाले की ओर कोई ध्यान दिया। जब वह चला गया तो गुरु ने शिष्य से पूछा, 'उस व्यक्ति पर क्या प्रतिक्रिया हुई?' शिष्य ने बताया, 'दुखी होकर भला-बुरा कहता गया है। कहता था ऐसा भी क्या संत। सब खा गया। न मुझे पूछा, न किसी और को।' अगले दिन दूसरा व्यक्ति भेंट लाया। संत ने भेंट उठाकर पीछे फेंक दी और लाने वाले से बड़े प्यार से बातें करते रहे। बाद में पता चला कि वह व्यक्ति भी दुखी होकर गया। उसका कहना था, 'अजीब संत हैं। मुझसे तो इतना प्यार जताया, मगर मेरी भेंट का अपमान कर दिया।' फिर तीसरा व्यक्ति भेंट लाया। संत ने उसे आदर से लिया। कुछ स्वयं खाया, कुछ उसे दिया और कुछ अन्य शिष्यों में वितरित करवा दिया। भेंट देने वाले से स्नेहपूर्वक चर्चा भी की। शिष्य ने सूचना दी कि यह व्यक्ति प्रसन्न होकर उनकी सराहना करता हुआ गया।

गुरु ने शिष्य को समझाया, 'बेटे। तीन तरह के व्यवहार में यही ढंग ठीक लगता है। दाता यानी भगवान बड़ी भावना से हमें विभूतियां देता है, हम उन्हें तो भोगते हैं, दाता की ओर ध्यान नहीं देते, यह पहला व्यवहार हुआ। दूसरा व्यवहार यह है कि हमने उसकी दी विभूतियों को तो त्याग दिया और उसकी खूब स्तुतियां करते रहे। तीसरा व्यवहार यह है कि दाता का उपकार मानते हुए उसकी ही विभूतियों का सही ढंग से प्रयोग करें। उनसे परमार्थ करें और दाता के साथ भी सहज संबंध बनाकर रखें। यही ढंग ठीक है।'

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